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Manju Joshi

Abstract Romance

4.5  

Manju Joshi

Abstract Romance

पहला प्यार,अर्थ बस तुम

पहला प्यार,अर्थ बस तुम

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356


कुछ शर्माई, कुछ घबराई सी

मिली उनसे मामा के घर, 

आँखें उनकी हटती नहीं थी, 

देखूँ कैसे जीभर उनको, 

पलकें मेरी उठती नहीं थीं। 


गालों पर हया की सुर्खी छाई थी, 

कंपन हृदयतल पर हरपल था, 

मुस्कुराकर बस मैंने इज़हार कर दिया, 

कुछ सोचा न समझा यारों, 

बस यूँहीं प्यार कर लिया।


बात हमारी दिन को ना अब

रातों को आराम पाती थीं,

फोन की घंटी बजते ही, 

मैं सुध-बुध बिसरा दौड़ी आती थी, 

उनकी आवाज़ सुनते ही, 

धड़कने बिल्कुल थम सी जाती थीं,

अकेले में बैठ उन्हें ही मैं

यादों में खोई गुनगुनाती थी। 


सिलसिला महीनों तक गुजारा, 

करवटें बदली रातों को जागकर,

कितना एकाकी जीवन लगता था, 

तब रातें तन्हाई में काटकर।


अब रहना था उलझकर उनको, 

मेरी चूड़ी की आवाज़ और कंगन में, 

फिर बँधे हम विवाह के पवित्र बंधन में, 

इस बंधन ने प्रेम की लता यूँ महकाई, 

प्रिया,जानू,स्वीटी से अद्र्धांगिनी उनकी मैं कहलाई, 

सफर हमसफ़र के संग अब सुखद से सुखदाई बना, 

भाग्यवान थी जो पति रूप में मैंने था उनको चुना। 


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