नारी, अटूट बंधन है
नारी, अटूट बंधन है
हाँ, टूट कैसे सकती हो तुम!
तुम तो घर का बंधन हो,
सारे रस श्रृंगार, हर्ष, शोक, वियोग
तुमसे ही तो स्पंदन पाते हैं,
तेरे नन्हे-मुन्ने तेरे आँचल में,
दिनभर की क्लान्त मिटाते हैं
अभी तो उनके पथ पर
आशा की अलख जगानी है,
अभी तो निराशा से तूने ठानी है,
अपने ही कर्तव्य पथ से विमुख,
मुख कैसे मोड़ सकती हो तुम,
हाँ, टूट कैसे सकती हो तुम!
अपने आँगन की चहचहाहट हो तुम,
अपने परिवार की मुस्कुराहट हो तुम,
माना उपेक्षित सा महसूस करती हो कभी,
पर जानो दुख में सुखद आहट हो तुम,
कितने ही झंझट- झमेले हों जीवन पथ पर,
विमुखता कैसे ओढ़ सकती हो तुम,
हाँ, टूट कैसे सकती हो तुम!
