।। पेट की व्यथा ।।
।। पेट की व्यथा ।।
सामने रखे समोसे को देख,
मन थोड़ा ललचाया था,
दायें बायें देख कर हमने,
जरा हाथ जो बढ़ाया था,
हमारे चमत्कारिक मटका रूपी पेट से,
एक मरोङ लेती आवाज आयी,
अभी कल ही तो पूरियां ठूँसी हैं,
कुछ तो रहम कर मेरे भाई।
ये तेरी शर्ट का बटन,
जो झेल रहा कब से मेरे,
लटके गोले का वजन
वो अब बस टूट जाने को है,
तेरी नाभि जो छुपी इसके भीतर,
वो ज़माने को मुँह दिखाने को है।
कुछ तो रख नियंत्रण,
अपनी इस चटोरी ज़बान पे,
दिन ब दिन बढ़ते फैलते,
इस शारीर के तूफान पे,
रहम कर उन घुटनों पर तू,
जिन्हैं अब तू छू भी नहीं पाता,
और उस दिल पर जो कर दोगुना काम,
अब थोड़ा थका सा है जाता।
बात बुरी तो लगा सकती है,
पर कहनी मुझे थोड़ी कोरी है,
उम्र उनकी ही है लंबी यहाँ,
जुबां जिनकी जरा कम चटोरी है,
मैं ये पेट तुम्हारा, अपनी व्यथा ये तुमसे कहता हूँ,
फिक्रमंद हूँ तुम्हारा तो ये दोहा में तुमसे कहता हूँ।
भोजन उतना कीजिए,जो तन को लग जाय,
अति का भोजन अंत में, खुद के तन को खाय।।