पढ कर वेद पुराण
पढ कर वेद पुराण
पढ़ कर वेद पुराण
कहाँ कौन सा ज्ञान पाएगा
जब तक न ईर्षा त्यागोगे
अंधकार में कितना जी पाएगा
यश , वैभव की भूख से
सिन्दू दिल के सूख गए हैं
विनम्रता, विवेक न जाने
कहाँ विलुफ्त हो गए हैं
लालसा का मुखौटा
सौन्दर्य है आज कल का
रूखा हुआ है व्यवहार
चिंतन नही कर्म फल का
खो चुकी है सोच
क्या छोड़ जाएंगे विरासत में
धूमिल हुए है संस्कार
अपने ही अहं की हिरासत में
चेहरों पर है नकली लाली
झूठ के बाजार सज रहे हैं
भरष्टाचार के नगाड़े
चारों और भज रहे हैं
उठ मानव मंथन कर
अपने भीतर के अंतर्मन से
गया वक़्त लौटेगा नही
रम जाओ एक दूजे के मन से
भोर आज की है भरी
सुख, शांति, कृपा, दया से
कृपादृष्टि बनी है अभी
कृपाधान परमात्मा से.
