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Pushkar Ki Kalam

Abstract

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Pushkar Ki Kalam

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पापा अब संग चाहिए तुम मुझको

पापा अब संग चाहिए तुम मुझको

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खाली खाली पन्ने सारे

बिखरे पडे थे

कोई भी आता कोई भी आते,


आँखों से दिखता था फिर 

भी पैर दिया करते थे

जब पैर पडता आपके,


तोह आप भी नज़रे नीचे करके

आशीर्वाद से रोशन हुआ देखता था खुदको


लोगों और ख़ुद मे नहीं होता इतना मजबूर

नही करता में दूर तुमको

पापा अब संग चाहिए तुम मुझको


परेशान करता था पापा होकर इतने दर्द में

फिर भी हाज़िर होते हर मेरे मर्ज में,


कितना भी बड़ा होऊ लोगो मे

फिर भी चुका ना पाऊ कर्ज में,


जब मेरी तारीफों मिलने वाले

तकलीफ देने लगे मुझे

तब एहसास हुआ मेरी

तारीफ होती थी आपकी लाठी से,


लोगों और ख़ुद मे नहीं होता इतना मजबूर

नही करता में दूर तुमको

पापा अब संग चाहिए तुम मुझको,


हाथ में नही आती चीज़ बडी

तोह रो रो बहाना करता था कि पापा में बडा हुआ हूं,

 

में सम्भलूँगा तुम ये चीज़ दो मुझको

छोटी सी आपकी मुस्कान बताती थी कि

इतने छोटे से दिल कैसे समा लिया तब मुजको,


बन जब बडा बना हातो का पक्का

फिके लगने लगे आपके जिंदगी के पूंजी के सिक्के,


अब में जिऊंगा हक से

तब भुला ने लगा में पापा आपको मुझसे


लोगों और ख़ुद मे नहीं होता इतना मजबूर

नही करता में दूर तुमको

पापा अब संग चाहिए तुम मुझको।



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