ओ..माँ
ओ..माँ
ओ माँ !
लेखनी की स्याह में
शब्द पिरो रही हूँ।
अधजली कागज पर,
भावना उकेर रही हूँ।
कोख को निचोड़कर
तूने कचरे में
मुझे फेंक दिया !
क्या कसूर था मेरा,
जो मौत में धकेल दिया ?
कैसी जननी हो ?
किस-किस से डर रही हो ?
अपनों से या
अपनी उस परम्परा से ?
जो स्वर्ग नरक का
द्वार दिखाती !
बेटा-बेटी में
भेद सिखाती i
कभी कंस भी
बेटी की हत्या से थर्राया था
हाँ, रावण भी
सीता-हरण से घबराया था ।
माँ तुझे भी
हत्या का पाप लगेगा !
मेरे खोने का कुछ तो
पश्चाताप रहेगा ?
विश्वास करो माँ,
मैं सती,
सावित्री और सीता बनूँगी
गार्गी, मैत्रयी और
इंदिरा दिखूँगी।
बस, एक बार,
एक बार मुझे आने दे
माँ अपनी बाहों में
मुझे सोने दे।