ओ चली
ओ चली
एक आहत, एक राहत
एक भली,एक बुरी
जैसे आयी, वैसे गयी
कोई साथ न जीवन भर चली I
कोई मीन जाल फंस गया
रोए बहुत, क्या ये जग भया
मीन रोए, क्या समुंदर भई
जो बचे उनका क्या उम्र न ढली I
माया न ये हाड़ मांस छोड़े
घर छोड़े मंसा को जोड़े
मजमा लगा लगा दंभ घोली
क्या फकीरी कभी दरबार में पली ।
चल ले चलते हैं मन में सुकून अपना
झूठा मोह जो न कभी होगा अपना
तेरा चादर तू ओढ़ पैरों तक भली
ये वक्त तेरा न मेरा ओ तो मुँह मोड़ चली ।