नींव
नींव
घर की नींव को,
तन, मन, धन की आहुति
दे पुख्ता बनाया !
दीवारों को संस्कारों से
लीप कर,
पुख्ता उठाया !
न जाने कब दीवारें घर की,
दरक गई !
बेटे ने हाथ उठाया,
तब जान पाया,
घर की दीवारों में,
दीमक लग गई है !
पश्चिमी बयार संस्कारों को,
चटकर गई है !
लगता है पूरे कुँए में ही,
भाँग पड़ी है !
घर-घर में आपमें,
और रिश्तों में, जंग छिड़ी है !
आँखें शर्म से लाल हैं,
छाती जल रही है !
किससे कहे और कौन सुनेगा,
यहाँ गूँगे, बहरे और अंधों की,
एक खेप खड़ी है !
अनदेखा, अनजाना मुखौटा ओढ़े,
चौराहे पर खड़े हैं हम !
घर - घर में मर्यादा और संस्कारों,
की होली जल रही है !
अरे, अपनी दीवारों को तो,
पुख्ता उठा नहीं पाये,
दूसरे की कब दरके,
"शकुन" उस पर नज़र गड़ी हैं !