Shakuntla Agarwal

Abstract

5.0  

Shakuntla Agarwal

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नींव

नींव

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घर की नींव को,

तन, मन, धन की आहुति 

दे पुख्ता बनाया !


दीवारों को संस्कारों से

लीप कर,

पुख्ता उठाया !


न जाने कब दीवारें घर की,

दरक गई !

बेटे ने हाथ उठाया,

तब जान पाया,

घर की दीवारों में,

दीमक लग गई है !


पश्चिमी बयार संस्कारों को,

चटकर गई है !

लगता है पूरे कुँए में ही,

भाँग पड़ी है !


घर-घर में आपमें,

और रिश्तों में, जंग छिड़ी है !

आँखें शर्म से लाल हैं,

छाती जल रही है !


किससे कहे और कौन सुनेगा,

यहाँ गूँगे, बहरे और अंधों की,

एक खेप खड़ी है !


अनदेखा, अनजाना मुखौटा ओढ़े,

चौराहे पर खड़े हैं हम !

घर - घर में मर्यादा और संस्कारों,

की होली जल रही है !


अरे, अपनी दीवारों को तो,

पुख्ता उठा नहीं पाये,

दूसरे की कब दरके,

"शकुन" उस पर नज़र गड़ी हैं !      


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