नेह के तार
नेह के तार
तनावों की खा खाकर मार,
नेह के टूट रहे हैं तार।
भेद के उपज रहे हैं भाव,
स्वार्थ सिर पर हो रहा सवार।
बढ़ी वैयक्तिक सुख की चाह,
हो रहे खंड-खंड परिवार।
कोशिशें करते हैं मां-बाप,
मिले बच्चों को पूरा प्यार।
वहीं वृद्धाश्रम वृद्धों हेतु,
ले रहे हैं फिर भी आकार।
सोचिए सूख रहा क्यों प्रेम,
बदल क्यों रहे मूल्य-संस्कार।
रहे हैं क्यों संवेदन सूख,
हो रहा क्यों समाज अनुदार।
नए मूल्यों को युग अनुरूप,
कहो, हम पाए क्यों न सुधार।
बनेगा यही, सांस्कृतिक-व्याधि,
तनावों का व्यापक विस्तार।