नदियाँ
नदियाँ
पर्वत की चोटी से निकली
प्रवाहिनी तटिनी
अदा कभी नरम सी
कभी उफ़ान की ये मल्लिका
बलखाती इठलाती बहती
जंगल-जंगल बस्ती-बस्ती।
हर राही को साथ ले चलती
चंचल लहरें उठती गिरती
खलिहानों पर
हरियाली बिखराती।
अपना घर-वर छोड़ के बहतीं
नातें रिश्ते जोड़ के चलती
मीठी उदगम की यादों को
पानी में मीठी मिश्री घोलती।
सूरज की किरणों से खेलें
लहरों पर अपनें झेलती
धन धान जीवन आधार।
नदियाँ ही कहलाती
किसान की माता कहलाती
उफ्फ़ ना कभी इतराती
प्यास बुझाती तापस की
हर राही हर मुसाफ़िर की
बहना ही जीवन है
चाहा कब प्रतिदान।
लहरों ने नमी से नम कर जाती
मीलों लम्बा सफ़र हे काटे
मीठे जल की रानी
ढ़लना है खारे सागर में
मन ही मन ये जाने फिर भी
उन्मुक्त सी मुस्काएँ।
उफ़ान पर आते ही नदियाँ
सब्ज़ परी बन जाती
रौद्र रुप से सैलाबों से
महानगर बहाती
कमर लचकाती कल-कल बहती।
वरण करें कभी सिन्धु का
गंगा का या कावेरी
अपनी मस्त अदा बिखराती
पूर्वाग्रह सब तोड़ के
नदियाँ है तो जीवन है
कानों में गुनगुनाती।