नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
हिमगिरि से निकल कर कल-कल,
निरंतर प्रवाहमान करती छल- छल,
है मेरी जलधारा निर्मल,
पर्वत श्रृंखला माता पिता मेरे चंचल !
लाड-प्यार से मुझको पाला,
मुझमे स्वछंद प्रवृति भर डाला !
पिता बोले जाना होगा,
प्यास मुझे बुझाना होगा !
अनेक कष्टों को सहके,
बाधाओं का सामना करके,
चलती गयी अपने पथ पे !
धन-धान्य उगाकर पेट पालती,
सर्वत्र हरियाली ही फैलाती !
मनुष्य ने ना समझा मेरा महत्व,
छीन लिया मेरा अस्तित्व,
दाव पे है मेरा व्यक्तित्व !
मुझे दूषित करना समझो पाप,
नहीं तो एक दिन दूंगी भयंकर श्राप !
बढ़ाते रहो खूब आबादी,
एक दिन लाएगी ये बर्बादी,
छिन जाएगी सारी खुशहाली,
और ना रहेगी धरती पे हरियाली I