STORYMIRROR

डॉ. रंजना वर्मा

Abstract

3  

डॉ. रंजना वर्मा

Abstract

नदी हूँ मैं

नदी हूँ मैं

1 min
235

अटल अचल की 

कोख से जन्मी

शिलाओं को 

तोड़ कर बही

सुनती रही

गुनती रही

कितनी ही


कही अनकही

कहीं बिखरी

कहीं 

उच्छृंखल हो बही

राह की बाधाएं

कभी बनीं अवरोध

हटाया उन्हें


बनी जीवनदायिनी

कहीं हुआ 

भीषण आक्रोश

करने लगी विनाश

फिर भी

रही जो जीवन के साथ

चली थाम कर हाथ

वही अविस्मरणीय

सदी हूँ मैं

नदी हूँ मैं।

जीवन के उद्भव 

और विकास की

मानव ने जो पाया

उस ज्ञान के प्रकाश की


उत्पत्ति की 

विनाश की

दुर्गंध और 

सुवास की

आने वाले भविष्य की

बीते हुए इतिहास की

अनन्त धाराएँ

हो रहीं 


जिसमें समाहित

वही अकथनीय

दुर्दमनीय

नेकी और बदी हूँ मैं

नदी हूँ मैं।


युग युग से जीवों को

बांट रही जिंदगी

पाया है प्यार

सत्कार

और बन्दगी।


किन्तु हो रही उथली

मानव ने 

मिला दिया मुझमें विष

रसायनों की जलन 

और गंदगी

करता उपेक्षा।


लड़कर बाधाओं से

सागर तक जाना है

वह है 

मेरी मंजिल

लक्ष्य वही 

पाना है

दूभर पर राह हुई

सूख रही जलधारा

मेरा वही आक्रोश

तोड़ रहा

कूल किनारा।


नष्ट हो रही हूँ मैं

है वही मिटाता

जिसके लिये

अनवरत बही हूँ मैं

मानव के कर्मों से

बनी त्रासदी हूँ मैं

नदी हूँ मैं।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract