नदी हूँ मैं
नदी हूँ मैं
अटल अचल की
कोख से जन्मी
शिलाओं को
तोड़ कर बही
सुनती रही
गुनती रही
कितनी ही
कही अनकही
कहीं बिखरी
कहीं
उच्छृंखल हो बही
राह की बाधाएं
कभी बनीं अवरोध
हटाया उन्हें
बनी जीवनदायिनी
कहीं हुआ
भीषण आक्रोश
करने लगी विनाश
फिर भी
रही जो जीवन के साथ
चली थाम कर हाथ
वही अविस्मरणीय
सदी हूँ मैं
नदी हूँ मैं।
जीवन के उद्भव
और विकास की
मानव ने जो पाया
उस ज्ञान के प्रकाश की
उत्पत्ति की
विनाश की
दुर्गंध और
सुवास की
आने वाले भविष्य की
बीते हुए इतिहास की
अनन्त धाराएँ
हो रहीं
जिसमें समाहित
वही अकथनीय
दुर्दमनीय
नेकी और बदी हूँ मैं
नदी हूँ मैं।
युग युग से जीवों को
बांट रही जिंदगी
पाया है प्यार
सत्कार
और बन्दगी।
किन्तु हो रही उथली
मानव ने
मिला दिया मुझमें विष
रसायनों की जलन
और गंदगी
करता उपेक्षा।
लड़कर बाधाओं से
सागर तक जाना है
वह है
मेरी मंजिल
लक्ष्य वही
पाना है
दूभर पर राह हुई
सूख रही जलधारा
मेरा वही आक्रोश
तोड़ रहा
कूल किनारा।
नष्ट हो रही हूँ मैं
है वही मिटाता
जिसके लिये
अनवरत बही हूँ मैं
मानव के कर्मों से
बनी त्रासदी हूँ मैं
नदी हूँ मैं।
