STORYMIRROR

डॉ. रंजना वर्मा

Others

4  

डॉ. रंजना वर्मा

Others

रोटी (ग़ज़ल)

रोटी (ग़ज़ल)

1 min
214

भूखों का घरबार छुड़ाती है रोटी ।

कितने तो त्यौहार मनाती है रोटी ।।


अक्सर हमने देखी रोटी चंदा में

सपनों का संसार सजाती है रोटी ।।


छोड़ दिया है गाँव उदर की ज्वाला से

जीवन को भी भार बताती है रोटी ।।


एक निवाले की ख़ातिर ही प्राण गये

खबरों को अख़बार बनाती है रोटी ।।


सीधी राह छुड़ा देती है सच्चों की

बटमारी हर बार सिखाती है रोटी ।।


मेहनतकश की ताक़त जब चुक जाती है

खुद की ही गमख़्वार कहाती है रोटी ।।


बुझ जाती है आग अगरचे चूल्हे की

अश्कों के अंगार जलाती है रोटी ।।



Rate this content
Log in