रोटी (ग़ज़ल)
रोटी (ग़ज़ल)
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भूखों का घरबार छुड़ाती है रोटी ।
कितने तो त्यौहार मनाती है रोटी ।।
अक्सर हमने देखी रोटी चंदा में
सपनों का संसार सजाती है रोटी ।।
छोड़ दिया है गाँव उदर की ज्वाला से
जीवन को भी भार बताती है रोटी ।।
एक निवाले की ख़ातिर ही प्राण गये
खबरों को अख़बार बनाती है रोटी ।।
सीधी राह छुड़ा देती है सच्चों की
बटमारी हर बार सिखाती है रोटी ।।
मेहनतकश की ताक़त जब चुक जाती है
खुद की ही गमख़्वार कहाती है रोटी ।।
बुझ जाती है आग अगरचे चूल्हे की
अश्कों के अंगार जलाती है रोटी ।।