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Praveen Gola

Tragedy

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Praveen Gola

Tragedy

नासूर

नासूर

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भय, दर्द, बेचैनी और खामोशी ,
फिर एक अजब सा शोर उठा ,
मैं टुकड़ों - टुकड़ों में बंट गई ,
मेरा दिल कहीं और जा कर कटा |

क्यूँ बताया उसने मुझे ?
क्यूँ सुना मैने वो दर्द ?
क्यूँ रोने लगी मैं बन कमजोर ?
क्यूँ रातों में हुआ एक शोर ?

कहाँ चली गई वो हँसी ?
कहाँ गया वो मेरा भरम ?
मैं इतनी संवेदनशील हुई ,
कि छिन - बिन हुआ मेरा बदन |

सारी रात बस एक ख्याल ,
चलता रहा इस मस्तिष्क में ,
मैं भूलना जब भी चाहती रही ,
वो और घुसा मेरे चित्त में |

मैं बांट ना सकी वो बात कहीं ,
एक शूल सा मुझमे गढ़ता गया ,
मैं लहू - लुहान भीतर - भीतर ,
मगर बाहर चेहरा हँसता गया |

मैने शब्दों को फिर ढाल बना ,
अपने भीतर को यहाँ उढ़ेल दिया ,
मेरे शब्द यहाँ बिखरने लगे ,
गिरते अश्रुयों ने बाँधों को रोक लिया |

मैने साँस फिर एक गहरी भरी ,
मेरा रोम - रोम तपता रहा ,
मैं दर्द किसी का कैसे सहती ?
मैने मूंद पलकें दर्द को खुद में भरा |

रात भर करवट बदल ,
ना जाने कब ये आँख लगी ?
मैंने नींद में भी बेखबर सी हो ,
उस दर्द से ही बात करी |

कभी - कभी अंजाने में ,
कुछ बातें घर कर जातीं हैं ,
जो नासूर बनकर कई दिनो तक ,
किसी के भावों से खेल जाती हैं ||






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