नारी
नारी
मैं देवी नहीं इंसान हूँ,
न औरत से कम,
न पुरुष से ज़्यादा!
मैं देवी का बोझ ,
हटा देना चाहती हूँ,
अपने काँधों से!
मैं ज़मीनी हक़ीक़त से,
जुड़ना चाहती हूँ,
एक निश्छल माँ बनकर!
मेरे अरमान नहीं कि मैं,
सिर्फ़ भोग्या बन जीवन बिताऊँ!
मैं आडम्बर से परे,
जीना चाहती हूँ,
एक सम्पूर्ण जीवन!
जी पाऊँ रोक-टोक के परे,
एक स्वतंत्र और भयमुक्त जीवन!
मैं स्वच्छंद नहीं,
स्वतंत्र होना चाहती हूँ!
कोमल हृदय हूँ,
निष्ठुर नहीं हूँ मैं!
तिरस्कृत होकर नहीं,
चाहती हूँ सम्मानजनक जीवन!
कर्तव्य बोध है मुझे,
अपने कर्तव्यों का निर्वाहन कर,
भोगना चाहती हूँ,
एक उन्मुक्त जीवन!
बिन हावांश किये,
सामाजिक मूल्यों का,
सामाजिक दायित्वों को निभा,
चाहती हूँ जीना एक
आधुनिक जीवन!
मैं नहीं चाहती,
नारी के नाम पर,
धब्बा बन जाऊँ!
सड़क पर निकलूँ तो,
कुल्टा कहलाऊँ!
पैर की जूती नहीं,
हमराह बनूँ मैं!
कंधे से कंधा मिला,
पुरुष के बराबर चलूँ मैं!
ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी,
'सकल ताड़ना के अधिकारी!'
मुझे पुरुष की इस सदियों पुरानी,
दक़ियानूसी मानसिकता से,
पार पाना है!
मैं देवी बन,
घर-मंदिर में भी,
नहीं सजना चाहती!
मुझे यह भी बर्दाश्त नहीं कि,
मैं घर-बाहर,
तृप्त भोग्या की द्रष्टि से,
निहारी जाऊँ!
चाहती हूँ मैं "शकुन",
पुरुष के बराबर,
एक सम्पूर्ण जीवन!!
