नारी व्यथा
नारी व्यथा
जन्म से मुझे बार -बार याद कराते हो
मुझे बेटी के रूप मे पाकर
वक्त को यही मंजूर था ,जमाने को बताते हो
आज भी बेटे के पैदा होने पर ही इतराते हो
दबे होठों से अपने भाग्य को कोसते कोसते
बेटी होने की खबर सुनाते हो।
बेटी होना अभिशाप नही है।
एकतरफ समाज ने बेटी को दुर्गा का रूप
मान कर पूजा की.....
परन्तु
कुछ दरिदो ने नन्ही कली को बडी बेदर्दी
कुचला।
नारी की संवेदना कोई ना जान पाया
हर बार अलग अलग रूपों से मानसिक पटल पर प्रहार किया।
समाज ने अनेकों बंधनों मे बंधाना चाहा
पंखों की उडान इतनी ऊँची थी।
लेकिन रूढ़ियों की बेढ़ियो को ना रास आया।
उडान की गति जब ना रूक सकी।
समाज मे एक नया रोग उभर कर आया:::::
बदचलन
इस शब्द का प्रहार बडा गहरा था
समाज मे जिस दिन सोच स्वच्छ हो जाएगी
नारी सम्मान दिखावे मे नही
दिल से किया जाएगा।
उम्मीद है मुझे
विश्वास भी
वो दिन जरूर आएगा.........