नारी के अधूरे स्वप्न
नारी के अधूरे स्वप्न
दर्पण के उस पार,
जहाँ दुनिया सारी औंधी है,
इधर महकती मेहंदी तो,
उधर बारिशें सौंधी है ।
दर्पण के उस पार है,
मेरे सब अलबेले सावन,
इधर खड़े है थाम अंजुरी,
मेरे प्रियतम साजन ।
सारे जो रह गए अधूरे,
सपने दर्पण के पार है,
इधर परिणय बेला है,
मुझसे लिपटा श्रृंगार है ।
कुछ एक स्वप्न तो टूट गए,
कुछ बैठे है गुमसुम,
इस पार है पायल,
कंगन, बिंदी, हल्दी, कुमकुम ।
बहुत देर तक पहले तो मैं,
खुद को निहारा करती,
कभी पोछती आसूं तो,
कभी ज़ुल्फ़ सवारा करती ।
सजी सुर्ख़ जोड़े में मैं,
इस पार तो बस सन्नाटा है,
उधर सदाएं यौवन की,
मस्ती है, सैर सपाटा है ।
तभी तोड़ तन्द्रा मेरी,
एक सखी बुलाने आयी,
द्वार खड़े है बाराती,
यह बात बताने आयी ।
छोड़ चली सबकुछ,
करने नवजीवन का आगाज़,
ठिठक गयी मैं सुनकर,
सूने कमरे में आवाज़ ।
सपनों को अपने देकर,
यूँ मजबूरी की गाली,
थाम कलम उस ओर खड़ी थी,
मेरी छवि निराली ।
बह निकली अश्रुधारा,
खुद को मैंने यूँ देखा,
उस पार हो तुम, इस पार हूँ मैं,
विचलित करती ये रेखा ।
रंग उधर भी है, रंग इधर भी है,
दुनिया दोनो रंगीली है,
कलम की स्याही नीली तो,
हाथों की हल्दी पीली है ।
गले का ज़ेवर करता है.
सब सपनों का व्यापार,
मजबूर हूँ मैं नहीं जा सकती,
अब दर्पण के उस पार ।