नारी एक रूप अनेक
नारी एक रूप अनेक
खिलखिलाती शोर मचाती
सबका मन बहलाती थी
पता चला न कभी बड़ी हुई
जो कल तक मेरी गुड़ियाँ थी।
छोड़ चली वो पिता का घर
जाने कब पत्नी रूप में बदल गई
अंजान थी जिम्मेदारियों से जो
आज उन्हीं से घिरी खड़ी।
वक़्त बिता और जीवन बदला
पूरी दुनियाँ उसकी बदल गई
रिश्ते-नातों में ऐसी उलझी
कि खुद का जीवन भूल गई।
नारी एक पर रूप अनेक है
जाने कितने रूपों में ढ़लती गई
वक़्त की माँग ने ऐसा बदला
इतिहास नये रोज रचती गई।