नारी : एक प्रश्नचिन्ह
नारी : एक प्रश्नचिन्ह
कब तक रिवाज के नाम पर
सदैव नारी ही पिसती जाएगी
अंधविश्वास की बलिवेदी पर
भेंट उसकी ही चढ़ाई जाएगी
लेती जन्म तो मायूसी छाती
लाए न दहेज तो अपराधी कहलाती
पोटली संस्कार की थमा दी जाती
लगाम लबों पर है लगा दी जाती
कैसा समाज ! ये कैसी पौरूषता?
सदैव नारी की ही लेता अग्नि परीक्षा
लगा कलंक फिर कलंकित करता
देख तमाशा फिर कटाक्ष है करता
कहीं पाँच भाईयों की बने ब्याहता
कहीं पति सौतेला बाप है बनता
मामा संग कहीं विवाह है रचता
समाज जिसे सहज स्वीकृत करता
कैसा चिंतन ! है ये कैसा मंथन
कहने को स्वतंत्र पर अभी भी बंधन
सहती अभी भी दर्द उत्पीड़न
होता अरमानों का भी खंडन
कब तक संस्कार के नाम पर
आहुति नारी ही दी जाएगी
कब तक समानता की दलीलें
यूँ धरी की धरी रह जाएंगी