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RAJNI SHARMA

Abstract

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RAJNI SHARMA

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उस गाँव को

उस गाँव को

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सोचती हूँ वो गाँव, वो गाँव!

अब होते हैं, जहाँ सुबह होती थी,

गँडासे की आवाज़ से......

अक्सर ढूँढा करती हूँ,                       

उस गाँव को।


चूल्हा जलाने के लिए, दौड़ती

दादी!

फूँकनी की सुरीली आवाज़ में,

टिमटिमाती!

उसकी अखियाँ, लाड लडाती,

उसकी बतियाँ।

अक्सर ढूँढा करती हूँ,

उस गाँव को।


दराँत से कटती तरकारी,

चक्की पर चून पीसते,

माँ के घूमते चूड़ियों के वो,

खनखनाते हाथ,

अक्सर ढूँढा करती हूँ,           

उस गाँव को।


दोपहरी पसरती खामोशी,

नींद में अंगड़ाइयाँ लेती,

दादी माँ की डाँट डपट,

छुप-छुप कर इंतजार की,

शाम को,

अक्सर ढूँढा करती हूँ,                   

उस गाँव को।


साँझ को घेर में पहुँचने की,

जल्दी!

बाल्टी में दूध निकलती,

धार को!

बाबा के कच्चा दूध पिलाने के,

प्यार को!

अक्सर ढूँढा करती हूँ,

उस गाँव को।


अँधेरा होते ही छत पर ,

चाँदनी रात में बिछते बिस्तर,

रेडियो में बजती रागिनी,

दादी के अजीबो गरीब किस्से,

अक्सर याद आते हैं,

याद आता है वो गाँव का,

सादा , निर्मल मौसम।

सच! अक्सर ढूँढा करती हूँ,

उस गाँव को।


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