नारी-दुर्दशा
नारी-दुर्दशा
गर्भ में भी वो दरिंदगी का शिकार थी,
ऐसे विज्ञान पर तो इंसानियत भी शर्मसार थी,
ममता की नहीं इस बार मानवता की हार थी,
बचा ले माँ मुझे यह उस मासूम की पुकार थी,
दरिंदों के आगे वह माँ भी लाचार थी,
और गर्भ में भी वह दरिंदगी का शिकार थी।
ऐसे विज्ञान पर तो इंसानियत भी शर्मसार थी।।
गलियों में चलना उसका मुश्किल था,
सहमा हर वक्त उसका दिल था,
जिस्म का नहीं वो उसके रूह का कातिल था,
उस रात उसे नोचने में जो-जो शामिल था
इंसान कहलाने के कहाँ वो काबिल था,
सम्मान छीनने का हक उन्हें कहाँ से हासिल था,
और गलियों में चलना भी उसका मुश्किल था।
सहमा हर वक्त उसका दिल था।।
धन के लालच में घर की लक्ष्मी को सताया,
माँ ने जिसे धूप से भी बचा कर रखा,
दरिंदों ने उसे जिंदा आग में जलाया,
लालच इस कदर सवार उनकी आँखों पर हुआ,
अपने हाथ से अपनी मानवता को सूली पर चढ़ाया,
माँ ने जिसे धूप से भी बचा कर रखा।
दरिंदों ने उसे जिंदा आग में जलाया।।
बेवजह अत्याचार सहती रही,
मत मारो मुझे सहमी आवाज में वो कहती रही,
घरवालों की इज्जत बचाने की कोशिश करती रही,
वो मारते रहे पर वो मरती रही,
बहुरानी उस घर की गुलामों की तरह रहती रही,
बेवजह अत्याचार सहती रही।
मत मारो मुझे सहमी आवाज में वो कहती रही।।
किस तरह वह टूटी होगी जिस दिन,
किसी ने उसके जिस्म को दाम पर लगाया,
किस तरह उसकी रूह रोई होगी जब,
किसी ने उसे इस काम पर लगाया,
खुद ही पैसा तुमने उसके नाम पर लगाया,
और खुद ही कलंक तुमने उसके ईमान पर लगाया,
किस तरह वो टूटी होगी जिस दिन।
किसी ने उसके जिस्म को दाम पर लगाया।।