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Jayshree Sharma

Abstract Others

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Jayshree Sharma

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ना मैं नहीं चाँद सी

ना मैं नहीं चाँद सी

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ना, मैं नहीं चांद सी

ना होना चाहती हूं,

मैं नारी विद्रोहिणी

रक्षा हेतु निज अस्मिता की

बिगुल विद्रोह का फूंकना चाहती हूं।

और सुनो, मैं तुम्हारे

इन प्रतिमानों और उपमाओं का

अब क्षुब्ध हृदय से प्रतिकार करती हूं।

ये जो तुम रचते हो

अपने मन संसार में

कभी मेरी काया के सादृश्य में

तो कभी

मेरी रूप लावण्य के सादृश्य में

उपमाओं का मायाजाल,

उन उपमाओं के छलावों से

तुमने सदियों तक

सदा ही छला है मेरा मन, मेरा तन।

कली कुसुम की या पुष्प कोमल सी

मैं अब नहीं होना चाहती हूं।


कुचल, मसल ना सको जिसे तुम

वह व्रज सा मन लिए लौह - कुसुम

मैं अब होना चाहती हूं।

और सुनो

ये जो सदियों से तुम

चांद के सादृश्य सा मुझे देखते हो

अब मैं इन सारे कोमलांगी बनाने वाले शब्दों का

अब परित्याग करती हूं।

करके परित्याग चांद सादृश्य रुप का

अपने लिए नये प्रतिमान गढ़ती हूं।

दग्ध सूर्य सी ज्वाला लिए

रूप दुर्गा का धरना चाहती हूं।

जिसके ज्वलनशील नेत्रों से

भस्मीभूत हो जाये तुम्हारी ये लपलपाती निगाहें।

या मैं होना चाहती हूं

ज्वालामुखी के तप्त लावा के सादृश्य सा

आते ही जिसके सानिध्य में

तुम्हारा अंग-अंग मोम सा पिघल जाए।



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