न कवि हूँ न शायर हूँ...
न कवि हूँ न शायर हूँ...
न मैं कवि हूँ न शायर हूँ
न उम्दा लिखने लायक हूँ
शब्दों के साथ खेलता हूँ
अक्सर मन के भाव को
कागज़ पर उकेरता हूँ
लिखने का रोग है मुझको
रोज़ खुद को टटोलता हूँ
कभी कभी आधी रात को भी
अपनी नींद को कर किनारे
खुद के सवालों मे खुद को घेरता हूँ
हाँ थोड़ा सा अजीब है शब्दों मे
न तहजीब है न तमीज़ है
बात जब सही और गलत की हो
तो फिर लेखन भी मेरा हो जाता
थोड़ा बदतमीज़ है
नारी के अस्तित्व पर सवाल उठाता है
उसकी खूबसूरती पर ग्रंथ लिखा जाता है
तू ही बता कितनी बार तू उसके
दूसरे पहलू को दर्शाता है
ग़रीब पर व्यंग्य बनाता है
कभी उसकी मदद को जाता है
मंदिर मे प्रसाद चढ़ाता है लेकिन कभी
बाहर बैठे भूखे को खाना खिलाता है
सही और गलत की बात करता है तू
कभी खुद के गिरेबां मे झाँका है
ओ इंसा तू तो सब कुछ जानकर भी
हमेशा अंजान बनना ही चाहता है....