मुसाफ़िर
मुसाफ़िर
मुसाफिर आज फिर सफ़र को निकला है,
कुछ पाने कुछ खोने निकला है,
बरसो से था अधूरा जो गीत उसके बोल खोजने निकला है
कई सवालों के जवाब ढूंढने निकला है,
एक किस्से को पूरा करने निकला है।
मुसाफिर आज फिर सफ़र को निकला है,
किसी कहानी का अंत करने निकला है,
शायद किसी कहानी की शुरुआत करने निकला है,
हाथों में इक तारा लिए निकला है,
कोई गीत गुनगुनाते हुए निकला है।
मुसाफिर आज फिर सफ़र को निकला है,
कुछ अरमान कुछ खवाहिशे आखों में लिए निकला है
पता नहीं किस राह को निकला है,
हर गम को भुलाने निकला है,
दो पल की खुशी पाने निकला है।
मुसाफिर फिर सफ़र को निकला है,
ना जाने किस मंज़िल को पाने निकला है,
कुछ ज़ख्मों के मरहम तलाशने निकला है,
किसी की खैर वो मांगने निकला है,
ऐसा लगा वो पीर मनाने निकला है।
मुसाफिर आज फिर सफ़र को निकला है,
धूप में छाव खोजने निकला है,
उम्र भर का साथ पाने निकला है,
जग से हर नाता वो तोड़ निकला है,
उलझी ज़िन्दगी को सुलझाने निकला है।
मुसाफिर आज फिर सफ़र को निकला है,
मुठ्ठी भर आसमान लेने निकला है,
चढ़ कर उतरे नहीं ऐसा नशा ढूंढने निकला है,
खुद से इश्क़ करने निकला है,
एक नई ज़िन्दगी लिखने निकला है।