मृत्यु
मृत्यु
सर्वथा उपेक्षित, किन्तु शाश्वत
होने का अभिमान होगा तुझ में
तुम्हारा स्मरण कर देता होगा
सबको भयभीत
तुम्हारे आने की ख़बर कँपा देती होगी
हाड़-मांस-आत्मा
पर, देता हूँ निमंत्रण मैं तुम्हें
हे मृत्यु! क्या नष्ट कर सकती हो मुझ को?
तुम्हारा स्मरण नित्य करता हूँ मैं
इसीलिए, धर्म की राह पर चलता हूँ मैं
तुम डराती हो उनको जिनकी
काँपती है देह
तुम जीतती हो उससे, जो है
अशक्त, हारा,बीमार
अस्तु, क्यों डरूँ मैं तुझ से
जब तुम मुझे नष्ट करने में अक्षम हो
तुम्हारी पहुँच सीमित है
देह तक ही तुम्हारी विजय है
पर, मैं तो देह नहीं हूँ
अगर कहूँ तो मैं देह हूँ ही नहीं।
तुम्हारी पहुँच से बहुत दूर हूँ
पर, यहीं हूँ, यहीं रहूँगा
हे मृत्यु! तुम्हें निमंत्रण है
क्या नष्ट कर सकती हो मुझ को?
डरे को डराना, हारे को हराना
तुम्हारी फितरत है
आ, हौसलों से टकरा, मन के हठी से भिड़
तुम्हारी निश्चित हार है
हे मृत्यु!यही हमारे उद्गार हैं
अगर यह हार स्वीकार है तो कहो
तुम्हारा निमंत्रण अस्वीकार है।
