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Aditya Pathak

Abstract

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Aditya Pathak

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जीवन-धारा

जीवन-धारा

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बाहर के शोर को जीवन से जोड़ते हुए आता हूँ मैं शाम को थका और शांत,

खोलता हूँ चप्पल अपने पाखंड की और करता हूँ प्रवेश खुद में निर्भ्रान्त।


सन्नाटे को गले लगाता मेरा मन किसी कोने में बैठ टटोलता है पाप विभिन्न,

कई कोशिशों के बावजूद खुद को करता है निर्दोष,

ये अहम्, सत्य का वहम नहीं है, न है केवल रोष।


फिर कुछ क्षण बाद करता समझौता मैं प्रच्छन्न,

'गलती मेरी थी' कहकर संतोष पाता है मन क्लिन्न।


लेकिन,क्या इससे नींद के अंक में मिल सकेगा आश्रय?

या, नींद करेगी तिरस्कार मुझे जान अनाथ निस्सहाय ?

क्या मैंने उतारी चप्पल फिर कर ली धारण ?

क्या बिना पाखंड चलेगा जीवन या होगा मरण ?


फिर कुछ क्षण तक किया इंतजार, आशा रखी आएगी नींद आज निर्विघ्न,

बजा बारह, एक, दो ..आँखें देखती रहीं पंखे अनिमेष।

होकर असफल, खाकर पाखंड फल सोचा मैंने 

भोगना है दुख, सहनी है पीड़ा करते हुए पाखंड यदि

बेहतर हो जी लूँ दुख को, बहती धारा में कूद जाऊँ सत्वर।


बदल कर होगा न कुछ जीवन को

बदल कर खुद को शायद मिल सकेगा आनंद असीम।


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