एक पुकार
एक पुकार
सड़क से गुजरते ही सुनी
एक आवाज़
जो आ रही थी
दूर उस भीड़ से।
मैंने सोचा
'मुझे क्या लेना'
बढ़ाते ही एक-दो कदम
वह आवाज़ फिर आयी
इस बार उसमें तीव्रता थी।
मैं गया नज़दीक
उस भीड़ के
सुने धार्मिक नारे
उन नारों में भगवान और ख़ुदा
दोनों थे
और उन धार्मिकों के बीच था
एक इंसान
जो उसी ख़ुदा के नाम पर
माँग रहा था
ज़िंदगी की भीख।
उसकी देह लाल हो चुकी थी
कपड़े फट चुके थे
सभी डंडे और पैरों से
कर रहे थे प्रहार
उस इंसान के साथ भगवान पर भी
वह कह रहा था दया करने
ख़ुद के साथ ख़ुदा पर भी।
पर, उसे पता न था कि
बँट चुके हैं भगवान और ख़ुदा
प्रहार सहने वाले के ख़ुदा का
नहीं है वास्ता
प्रहार करने वाले के ख़ुदा का।
मैं कुछ कर न सकता था
न यह सह सकता था
इसलिए निकल गया मैं
दूर उस भीड़ से ।
जाते हुए सुन रहा था
वही पुकार
जो हो रही थी
मंद से मंदतर।
वह कानों में घुस कर
दिल को चीर रही थी
मैं असहाय होकर
सब स्वीकार कर रहा था।
अचानक वह पुकार बंद हो गई
मेरे कदम धीमे और साँस तेज हो गई
सोचा
दोषी कौन ?
फिर मुड़कर देखा उस भीड़ को
लगी अधूरी -सी
फिर सड़क किनारे लगी गाड़ी में देखा
ख़ुद को
फिर ज़रूरत न पड़ी
वापस उसे देखने की
शायद पूर्ण हो गयी
वह दूर की भीड़ ।