स्त्रियाँ
स्त्रियाँ
ख़ुद को समेटे चली जाती हैं
नियति के भरोसे
जहाँ सिंचती हैं हर रिश्ता
अपने अथक श्रम से ,श्रद्धा
और प्रेम के खनिज से,
पर, उन्हें अथक समझना
भारी पड़ जाता है उनको,
वे चाहती हैं कुछ पल अपने
लिए अपनों के साथ
कुछ पल में ही जी लेती हैं वे
अपने समेटे हुए सपने
और फिर चल पड़ती हैं अपने
कर्मपथ पर उसी तरह प्रेम से।
ये स्त्रियाँ सह लेती हैं बड़ों के
ताने करते हुए कर्म अपने
चुप रहकर ही सँभालती हैं
सबको हर दिन,
पर, उनकी चुप्पी को उनकी
प्रकृति समझना भारी पड़
जाता है उनको,
वे चाहती हैं बोलना ख़ुद के
लिए अपनों के बीच खुलकर
ताकि उनकी पीड़ा समझ
सके सब और कर दें इंकार
स्त्री-पीड़ा को नियति मानने से।
ये स्त्रियाँ दाँव में लगाती हैं
स्वेच्छा से ख़ुद के सपनों को
अपनों के लिए,
जिताती हैं पूरे परिवार को हर
वक्त, हर पल।
पर, उन्हें हारा हुआ मानना
भारी पड़ जाता है उनको ,
वे चाहती हैं जीतना ख़ुद के
लिए एक बार
ताकि मान सकें सब उनकी
क्षमता, सामर्थ्य मन से।