मृत्यु मृदंग
मृत्यु मृदंग
ऐसी पड़ी थी पीड़ित दुर्बल ,
बिन बल गिरी थी मुंह के बल।
पीड़ा से वो पैर पटकती,
जैसे हर एक सांस अटकती।
आंखे जब चढ़ जाती ऊपर,
लगता जैसे रोती हो हूं हुंकर।
एक माह की छोटी सी होकर,
करे मृत्यु का इंतज़ार रो रोकर।
अंतिम सत्य उसने स्वीकारा,
करुण हृदय से मां को पुकारा।
मां की ममता मृत्यु वत्स की,
थी मूर्ति अत्यंत वीभत्स सी।
अन्तिम बार माता पुचकारे,
फिर भी कांपे मृत्यु के मारे।
हुई प्राप्त शांति सन्नाटे में,
बाजे मृत्यु मृदंग झन्नाटे में।
