मंज़र
मंज़र
मानवीय संवेदना को
लगा गहन झटका
जब किसी मानव ने नहीं
वरन्
प्रदूषण के जहरीले नाग ने
समाॅग का रूप धारण करके
डंस लिया
कुदरती फाॅग को
बंद कर दिया है मानव को
खुद के बनाये किवाड़ों में
बीमारी से लड़ पाने में असमर्थ
रोगी की मानिंद
सिर्फ देख रहा
तमाशा स्वयं का !
हो रहा हनन
फिर से निजता के अधिकार का
घूमना चलना फिरना
टहलना दौड़ना
थम सा गया
जीवित तो है
पर रुकी हुई हैं सांसें
खौफ का साया
प्रतिपल चल रहा है साथ !
दर्द का भयावह मंज़र
नित्य देखती हैं आंखें
मांस के लोथड़े
वृक्षों से गिरते पत्तों जैसे
बिखरे हैं इधर-उधर !
एक आह एक हाय
निकलती है बस
फिर जिंदगी चलने लगती
मरे हुये जीवित लोगों की !