"मंजिल"
"मंजिल"


चली थी घर से
मंजिल की तलाश में
भटकती ही रही मैं राह में
हमसफ़र भी मिले, हमख्याल भी
तन्हा ही रही, सब्जेबाग में
कहने को अपनों की लम्बी कतार है
आँसू जो पोंछ ले, नहीं पास में
खामियाँ ही खामियाँ
ढूंढता रहा हर इन्सा
शोहरत का सेहरा बंधे
रही इसी आस में
क्यों आस पाली "शकुन"
क्यों दिल दुखाया ?
पत्थर हैं जो दिखते
इन्सानी लिवाज में
दीये की लौ बन
जलता रहा दिल
कैसे बचूं तपन से
हूँ उदास मैं
यही सोच जिन्दगी का
इक -इक पल गुजारा
जिन्दगी की शाम है पास में
तुम्हें बदनाम ना किया
खुद रुसवा ना हुये
क्या रखा था हिसाब-किताब में
अधूरी ही रह गई दिल की हसरतें
कौन दिखाता मंजिल
स्वार्थ के बाजार में। ।