मनहरण घनाक्षरी १
मनहरण घनाक्षरी १
प्रेम का प्रसाद पुन्य,
भावना का रूप शुद्ध
आत्मा की चेतना से,
भली भााँति जानती।
लोक लाज तज मीरा,
प्रीत पाग पग मीरा
कान्हा कान्हा नाम बस,
रटती थी जागती।
रात दिन पल पल,
देह नेह से निकल
बस एक रूप में ही,
खुद को निहारती।
हरि नाम पान कर,
विष का निदान कर
मीरा राज योग में भी,
बावली सी भागती।।
