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Harish Bhatt

Abstract

4.5  

Harish Bhatt

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मन की संतुष्टि

मन की संतुष्टि

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मन में थी तमन्ना

हो मेरा भी नाम

और इस नाम के लिए

न जाने क्या-क्या खो दिया

अपना घर, अपना गांव

अपने दोस्त, अपने खेत

अपने नाम के लिए मिटा दी

अपने पुरखों की पहचान

नई मंजिल की उड़ान में

उखड़ गए जमीन से कदम

कभी-कभी

सुखद अहसास होता था

सब जानते हैं मुझे यहां

पर मन के कोने में

एक दर्द सताता रहा और

मन को नहीं मिली संतुष्टि

बहुत तेज कदमों से बढ़ता गया

अपनी मंजिल की ओर

और अचानक एक दिन

थम गए मेरे कदम

जब देखी दुनिया की हकीकत

यहां उगते को होता है सलाम

अब जिंदगी की शाम में

सोचता हूं

नाम के लिए क्या नहीं किया

नए इतिहास के सृजन में

खुद इतिहास बन गया

कौन करेगा याद मुझे

जब मैंने ही नहीं किया

किसी का सम्मान

जो मिला मुझे अपनो से

एक नाम के लिए

ठुकरा दिया उसे

अब न कोई तमन्ना है

न कोई मंजिल

अब तो बस जाना है

उस अनंत यात्रा पर

शायद वहीं मिल जाए

अधूरे मन को संतुष्टि!


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