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Bhanu Soni

Abstract Tragedy

4  

Bhanu Soni

Abstract Tragedy

मजदूर

मजदूर

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एक हौसला कुछ आशाएँ पाले 

निकल पडता हैं, जो काम पर 

सूरज निकलने से भी पहले, 

उसका अभाव ही हैं......... 

जो उसे जगाता है।। 


तन के वस्त्रों की इसे कहाँ रही हैं फिकर कभी..... 

इसके बच्चों का भूखा होना ही 

एक अमिट दर्द है....... 

जो इसे सताता हैं। 


शौक सारे बंद कर दिए थे कभी 

दुनियादारी की दुकानों में, 

अब तो.......... 

रोज की गुजर पूरी हो जाये,

मन का यह सुकून ही दिल बहलाता हैं।। 


कभी देखा हैं, बिना छत के 

काम करते उसे....... 

यूँ लगा होता हैं, जैसे..... 

उसके जीवन का आखिरी युद्ध 

यही हो, 

ऐसे हालात में भी सोचो..... 

वह मुस्कुराता हैं। 


अमीरों की बस्ती से उसे क्या लेना -देना? 

उसका बालक तो खिलौनों के लिए भी तरस जाता हैं। 


कभी दिल में जगती भी हैं 

जब आस कोई, 

बैठ के वृक्ष की छाँव तले अपने मन को समझाता है। 

यहीं वह मजदूर हैं जो 

दो-जून की रोटी के लिए 

दिन रात अपना पसीना बहाता हैं।






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