मज़दूर की व्यथा कथा
मज़दूर की व्यथा कथा
मुझसे हाथ मिलाकर
तुम मगरूर हो गए हो,
ये हाथ घर बनाता रहा
तुम मशहूर हो गए हो।
ईंट गारे के साथ मैंने
अपना आप भी चुन दिया
दीवारों में,
यह सोचकर
कि जब भी इन्हें छुओगे
मेरे होने का एहसास पाओगे !
मेरे हाथ तरस गए हैं-
ईंटों की छुअन को
सिमेंट गारे की गरमाहट को
तपते सूरज की आंच झेलते
अब लावारिस
पसरे हैं नंगे फर्श पर।
मैं अभिमन्यु
मां के पेट में ही मज़दूरी के गुर
सीख चुका था;
किंतु निकल नहीं पाया इस
चक्रव्यूह से-
इसी से पीढ़ी दर पीढ़ी
मज़दूरी की विरासत बांट रहा हूं !
थमती नहीं है मेरे इन हाथों की खुजली-
छेनी, हथौड़ा थामने की,
करघा, चक्की चलाने की,
उस्तरा थामने, बाल काटने की;
कपड़े धोने की, चाय औटाने की या
अपने लिए-
एक रोटी थापने की !
गांव घर छोड़ प्रवासी हो रहा
हे ईश्वर
मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था
कल तक मज़दूर था
आज मजबूर हो गया !
