मिट्टी
मिट्टी
मिट्टी तो मिट्टी होती है
उस के लिए क्या सोचना?
उसपर हम चलते ही तो जाते है
हम यूँ भी कह सकते है
बचपन में उस मिट्टी को
ठोकरें मारते हुए चलते है
और बड़े होकर उसी मिट्टी को
रौंदते हुए आगे बढ़ते रहते है
वह फिर भी हमे खेलने देती है
खिलने देती है
वह ना तो कभी वजाहत करती है
और ना कभी कोई सवाल भी
यह मिट्टी सिर्फ मिट्टी नहीं होती है
इस के ख़ातिर सरहद पर सिपाही
जान देते है
इसकी सौंधी महक वतन वापसी की
आस जगाती है
लेकिन कभी कभी यह मिट्टी
एक सौदागर सी लगती है
वह अपना कर्ज़ भी याद रखती है
और फ़र्ज़ भी
जिंदगी की साँसों की गिनती को भी
बखूबी याद रखती है
इन सबका लेन देन का हिसाब भी रखती है
लेकिन जिंदगी की शाम में वह माँ जैसी हो जाती है
राजा हो या रंक हो
सबको दो ग़ज़ जमीं देकर
अपने आगोश में ले लेती है.....