मेरी व्यथा
मेरी व्यथा
मैं एक औरत हूं
बसती हूं पूरे घर में
रहती हूं सब की
दिनचर्या में शामिल
मैं आज की नारी हूँ
करती घर व बाहर सब काम
करती संतुलन सब में
पति जब थक कर
घर आए
देती आराम उसे
बच्चों की गुरु हूँ मैं
कराती सब विषयों का ज्ञान
अच्छे बुरे का बोध कराती
कदम कदम पर रखती ख्याल
सास ससुर की नर्स हूं मैं
उनकी दवाइयों का
खाने-पीने का
उनके सैर सपाटे का
रखती हूं ध्यान
खुद यदि आराम
करना चाहूं तो
याद आता घर
का सारा काम
मैं एक बेकार हूं
करती सब काम
बिना किसी लेनदेन के
यदि किसी दिन
शरीर से प्राण निकल
जाएंगे मेरे
तो रह जाऊंगी
राख बनके
एक राख हूँ मैं
मैं एक औरत हूं।
जिसने कभी
अपना महत्व
न जाना
और यह दुनिया
भी उसका मौल
न जान पाएगी कभी
क्योंकि मैं एक औरत हूं
जिम्मेदारियों को कंधों
पर लिए
सुबह से शाम तक
दौड़ती भागती औरत।
