मेरी स्वप्न परी
मेरी स्वप्न परी
कोई अजनबी मन को मेरे छूने लगी।
लगता है कहीं मुझको कुछ हो गया।।
ढूंढता है मन घड़ी घड़ी बन के बंजारा।
जाने कहाँ चैन मेरा मन कैसे खो गया।।
लगती कोयल सी मधुर बोली उसकी।
बिना शृंगार के भी रूप से ललचाती है।।
मन की आँखों से ओ मुझको दिखती ।
मेरे मन-मंदिर में हर पल बस जाती है ।।
हिरणी जैसी है चंचल आँखें उसकी।
श्वेत पतली कमर में लहराते बाल है।।
होंठ है उसकी पाटलपुष्प की पंखुड़ी।
हिरणी की कुलांचे जैसी मतवाली चाल है।।
लगती है कोई स्वर्ग की ओ बाला।
जो धरती पर कयामत मचाई है।।
ऑंहे भरे लोग जब बात करे ओ।
उसकी वाणी में सरगम समाई है।।
है, चंद्र चकोर शरद् की यामिनी सी।
सद्गुणों से लगती, है भरी भंडार।।
ब्रम्ह कृति की होगी अनुपम रचना।
तृप्त होय मन देख कुलीन संस्कार।।
बातें करने से वह मुझसे शरमाती।
मुझे देख-देखकर छिप जाती है।।
उसकी चंचल चितवन रह-रहकर।
हर-पल मुझको बहुत तड़पाती है।।