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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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मेरे देश की माटी

मेरे देश की माटी

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विलायत में भी तेरी माटी को सदा में साथ रखता हूं

मातृभूमि तुझे में सज़दा सुबह और शाम करता हूं

तुझसे तन से भले में दूर हूं,दिल से में तेरा ही कोहीनूर हूं

तेरी माटी को चूमकर मोहब्बत तुझसे बेपनाह करता हूं


हर रंग फीका है बस तेरी माटी के रंग के सामने,

तेरे रंग से ही में इस बेजान से जीवन में रंग भरता हूं

विलायत में भी तेरी माटी को सदा में साथ रखता हूं

लाखों परफ़्यूम रखे है विदेशी दुकानों में,

मैं तेरी बारिश की महक को याद कर रोता हूं


पैसे कमाये तो मैंने बहुत है,

रिश्ते गंवाये भी मैंने बहुत है,

रात के अंधेरे में हर रोज़ में तन्हा होकर सोता हूं

विलायत में भी तेरी माटी को सदा में साथ रखता हूं

तेरे ही संस्कार,तेरे ही विचार मेरे दिल मे समाये हैं


हर सूरत में स्वाभिमान से में वहां काम करता हूं

एक रोज़,एक विलायती बाबू से बहस हो गई मेरी

उसने कहा तुम भारतीय सदा ही करते हो हेराफेरी

तुम्हारी माटी में ही है,लालच की जड़े है बड़ी गहरी,


बात उसकी दिल पर मेरे चुभ गई बड़ी ही गहरी

मैने कहा हमारे देश की मिट्टी मिट्टी में सोना ही सोना है

हम न देते शून्य तो तुम्हारा गणित तो था बस खिलोना है

वो और भी ज़्यादा गुस्से में आ गया


मेरा चेहरा देखकर वो तमतमा गया

तुम भारतीयों पर हमने बरसों तक राज किया है

तुम्हारी हर जगह को लूटकर बर्बाद किया है

मैं बोला कुछ गद्दारों की वजह से तुमने राज किया है


फूट डालकर आपस में हमारे पर पीछे से वार किया है

तीर उसके दिल में लगा वो औऱ तिलमिलाने लगा

तुम भारत के बेवकूफ़ हो अंधविश्वास के बड़े कूप हो

मैंने कहा हम अंधविश्वाशी नहीं है,


हमारी रीति रिवाज सब विज्ञान से जुड़े हैं

हमारे पवित्र ग्रन्थों से नासा के भी चक्षु खुले हैं

वो हार गया, अपना रास्ता माप गया 

विलायत में भी तेरी माटी को सदा में साथ रखता हूं

कोई तुझ पर उँगली उठाये उस पर हाथ दो चार रखता हूं।


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