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pratibha dwivedi

Abstract Classics

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pratibha dwivedi

Abstract Classics

मधुरिम निशानी-घर

मधुरिम निशानी-घर

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एक घर दो रसोई , परिवार है पर लगन सोई।।

सन्नाटा पसरा घर में आपस में बात करे न कोई।

सगे हैं पर अजनबी से एक दूसरे को देखते हैं।

रंजिशे पाले हैं मन में एक दूसरे पर खीझते हैं।


मरे से जज़्बात हैं एहसासों में भी चुभन है।

कहने को तो एक हैं पर एकता में घुटन है।

क्या कहें उस जगह को जहाँ लोग ऐसे रह रहे।

घर ऐसा तो होता नहीं कुछ लोग घर ही कह रहे।


एक छत के नीचे ही रिश्तों में खिंचाव है।

मनों में सबके कहीं दिख रहा तनाव है ‌।

क्या फायदा उस साथ का जहाँ एकता का सुर नहीं।

झुंड है या भीड़ है पर घर तो ये हरगिज नहीं।


आजकल कुछ घरों की ऐसी ही है दास्तां।

मतलबी बन लोग सारे स्वार्थ की बोलें जुबां।

भरे पूरे घर के होकर तितर-बितर हो रहे।

एक छत के नीचे भी तन्हाई पल पल सह रहे।


लानत है ऐसे लोगों पर अपनों से बना सकते नहीं 

एक दूसरे को प्यार से गले लगा सकते नहीं।

ऐसे कैसे सगे हैं ?हो गया इनका खून पानी।

भावनाएँ जब मर गई तो काहे का हिंदोस्तानी ?


आदम नहीं पुतले हैं ये जो घर में आकर बस गए 

काठ के हैं लोग सारे जज़्बात जिनके मर गए।

इनसे कहो ये चेत जाएं इंसान हैं ना भूल जायें।

अकड़ से कब घर बना है घर चाहिए तो दिल सजायें।


घर की रौनक प्यार है आपसी विश्वास है।

एक दूसरे में जान है एक दूसरे से मान है।

त्याग नहीं समर्पण है भरपूर जहाँ समर्थन है।

एक दूसरे की खुशियों से होता जहाँ पुलकित मन है।

एक दूसरे की खुशियों से होता जहाँ पुलकित मन है।।


आइए ऐसा घर बनायें हर कोने में प्यार बसायें।

लड़ें नहीं झगड़ें नहीं एक दूसरे पर प्यार लुटायें।

चार दिन की जिंदगानी फिर तो बिछड़ ही जाना है,,

तो जाने से पहले अपनी मधुरिम निशानी हम बनायें।

मधुरिम निशानी हम बनायें।।


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