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कुमार संदीप

Tragedy

5.0  

कुमार संदीप

Tragedy

मछली

मछली

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हाँ मैं मछली ही तो हूँ

मछली ख़ुद को इसलिए कह रही हूँ कि

मैं भी मछली की तरह कभी-कभी सिसकती हूँ

जब हैवान हैवानियत की हद पार कर

नोचते है अंतस तक मुझे

हाँ मैं खूब रोती हूँ सिसकती हूँ उस वक्त

मछली की तरह मेरी आँखों से बहने

वाले आंसुओं को समझने वाला कोई नहीं है

हाँ कोई नहीं है जो समझ सके

मेरी पीड़ा मेरा दर्द

मछली छटपटाती है जब मछली को काटा जाता है

और इधर मैं भी 

बांधी जाती हूँ बेवजह की बँधनों में

हाँ हैवान नहीं सोचते हैं एक पल के लिए भी

कि मैं आखिर क्यों कर रहा हूँ ये सब

क्यूं इंसानियत की परिभाषा भूल जाते हैं 

और कर देते हैं कुकृत्य 

क्यूं हर बार मछली की तरह 

नोचते हैं काटते हैं मुझे कुछ इंसान रुपी हैवान

हाँ क्यूं आखिर क्यूं?



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