मैं यह गीत नहीं लिखता
मैं यह गीत नहीं लिखता
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये,
आज आग जलाता हूँ,
की फिर ताप बढ़ जाये।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
बहुत दिनों की बातों का,
की राज लिख रहा हूँ,
शांत शांत रहने का
नाटक कर रहा हूँ,
की फिर आग लग जाये।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
दशकों से भारत भूमि पर,
की राज खोजते फिरते है,
अपने लोभ की गठरी को,
की वर्षो से लादे फिरते है।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
इस क्रूर सत्ता की जंजीरों को,
की हिला हिला कर तोड़ दो,
देश के बंटवारे की ईटों से,
की नया इतिहास जोड़ दो।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
शोषित जनता के ह्रदय में,
की नव चिंगारी सुलगा दो,
भूखी प्यासी आवाजो में,
की ओजस्वी रण नाद दो।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
समय नहीं है खेती
और खलिहान का,
की बारिश की बाँट निहारी जाये,
समय नहीं चापलूसों को,
की सत्ता पर क़ाबिज हो जाये।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
समय नहीं है भवनों के निर्माण का,
की डाकू चोर हत्यारों का सराय बन जाये,
समय नहीं है राजपथ अभिमान का,
की लोकतंत्र का अंतिम पथ बन जाये।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
कह दो तुम सीना तान कर,
की शासन छोड़ो जनता का,
बार बार बारी को छोड़ो,
की छोड़ो शोषण हारी का।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
वो कब तक शांत रहेंगे,
की मुँह पर पट्टी बांधे,
वो एक दिन ऐसे बोलेंगे,
की धरती सागर नभ भी आधे।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
चूल्हे की आग बढ़ी,
कु श्मशान में ज्वाला चढ़ी,
क्रांति की रक्त धारा,
की भोले भोले मानस में बढ़ी।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
की मन बहल जाये
सत्ता के जागीरदारों से
नफरत हुई,
की राष्ट्र से प्रेम बढ़ा,
राजपथ पर रक्त पग धरे,
की सिंहासन नव जनता से गढ़े।
मैं यह गीत नहीं लिखता,
कि मन बहल जाये।
