मैं तुम्हें कुछ देना चाहता था
मैं तुम्हें कुछ देना चाहता था
मैं तुम्हें देना चाहता था कुछ बेबाक से दिन,
वो दिन जिनकी शुरुआत तुम्हारी महक से होती..
वो दिन जहां चिड़ियों सी चहकती अपनी प्रेम कथाएं...
मैं तुम्हें वो घर देना चाहता था जिसके पुर्जे पुर्जे में आधे तुम आधा मैं होता,
वो हर खाब पूरा करना चाहता था जिसकी तुम चाहत करती थी।
मैं तुम्हें वो गांव देना चाहता था जहां आज भी जमुना किनारे खड़े कदंब किसी राधा की बाट जोहते हैं,
मैं तुम्हारे माथे पर चांद सी बिंदी और सूरज सा सिंदूर देना चाहता था।
मैं तुम्हें वो पर्वत देना चाहता था जिसके आंचल में
तीव्र वेग सी हिरण चौकड़ी भरती नदी भी शांत और सरल हो जाती है।
मैं तुम्हें वो शामें देना चाहता था, जहां के दिन तुम्हारी पलकों से ढंक जाते हों,
जहां तुम्हारी गुनगुनी आवाज, मेरे हर ढलते दिन की गवाह बनती।।
मैं तुम्हें अपना सब कुछ देना चाहता था....!!
पर तुमने बस एक ही चीज मांगी और जो मैं दे ना सका
जिसका मैं अपराधी हूं, मैं दोषी हूं तुमसे बिछड़ने का प्रिय...
तुमने मांगी थी बस एक सरकारी नौकरी
जिसके लिए मैं लड़ता रहा सिस्टम से, मगर तुम दूर हो गई।।
मेरे सपने मेरी जिंदगी मेरी कीर्ति मेरा सब कुछ लेकर चली गई
किसी सरकारी नौकरी वाले के साथ।
अब मैं तुम्हें सब दे सकता हूं, सरकारी नौकरी भी...
बस अब खाबों में भी मत आया करो, ड्यूटी पर जाना होता है नींद नहीं आती...
सुबह दफ्तर में लोग सबब पूछते हैं सूजी आंखों का।
मैं तुम्हें सब कुछ देना चाहता था प्रिय।