मैं स्त्री हूँ
मैं स्त्री हूँ
मैं रंग रूप से पहचानी जाती हूँ
कद काठी से नापी जाती हूँ,
खुद के नाम से ज्यादा
दूसरों के नाम के सहारे
पहचानी जाती हूँ।
मैं, खुद को मैं कह नहीं सकती
क्योंकि सबकी छाया में जीने की
कला बचपन से लेकर बुढ़ापे तक
सीखते हुए आगे बढ़ती हूँ।
सबेरे की रंगोली से लेकर
रात के फूलों की सेज तक
हर जगह" मैं "ही ,"मैं "हूँ
लेकिन फिर भी" मैं" कहीं अपना नाम
खुदवा नहीं सकती हूँ।
"मैं "नामविहीन,जाति विहीन ,हाड़-माँस की काया हूँ,
जल के समान स्थान, काल,पात्र के अनुसार
ढल जाने,बह जाने की कला में "मैं" पारंगत हूँ।
ईश्वर की बसाई बस्ती की "मैं" भी इक प्राणी हूँ
पहेली नहीं मैं जीती जागती इंसान हूँ।
फिर भी आदिम काल से लेकर सभ्यता के
चरम पराकाष्ठा के काल में भी मैं
नोंची-खसोटी जाती हूँ।
चीरहरण से खुद को बचाते -बचाते" मैं"
इस संसार पर भरोसा करना भूल गई हूँ
"मैं" खुद ही अपना बाज़ार खुद लगाना सीख गई हूँ
फिर भी लज्जित नहीं कोई
मेरे इस व्यवहार पर ,
संसार इसे स्त्री विमर्श का नाम दे रहा है।
"मैं"अपना जौहर खुद सजाकर परितृप्त
महसूस कर रही हूँ
"मैं" स्त्री हूँ
हर साल" मैं"अपने जन्मदिन का ढोंग
मनाते देखकर मन ही मन इतराती हूँ।
