मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मेरे अंतर्मन से आवाज़ आती है
कि प्रेम स्वतन्त्र होता है,
इसमे ना कोई मोह होता है
ना ही कोई बन्धन
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न।
मैं हरगिज़ नहीं चाहती कि
कोई मुझे दीवानी कहे कृष्णा के प्रेम में
ओर मैं नहीं चाहती राधा की तरह गैर से विवाहित हो जाना
मैं कदापि नहीं चाहती रुक्मिणी सा जीवन
मैं नहीं चाहती मीरा की तरह कलंकित होना
सीता बनकर भी मुझे नहीं देनी अग्निपरीक्षा
नहीं चाहिये मुझे उर्मिला की तरह
वनवास तक अंधकार में जीना,
ना कौशल्या की तरह त्याग
ना कुंती की तरह वियोगित होना,
ना द्रोपदी की तरह लज्जित होना
ना ही सूर्पणखा की तरह आत्मसम्मान खोना,
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न।
मेरे अर्थ मैं प्रेम की कोई सीमा नहीं
प्रेम बेशर्त, निर्मोह, अद्भुत होता है,
प्रेम का कोई अक्षांश नहीं होता
इसके छोर की कोई परिधि नहीं होती,
प्रेम समांतर भी होता है
प्रेम असमान्तर भी होता है,
प्रेम में ठहराव की कोई जगह नहीं होती
प्रेम निरन्तर होता है,
मेरी नजरों में प्रेम अनन्त होता है।
मैं चाहती हूँ प्रेम में लीन हो जाना
मेरे प्रेम का कोई नाम ना हो
कोई ना पूछे कि मेरे भीतर किसका वास है,
मैं अनन्त तक सिर्फ उसी की रहूँ,
माना कि दो समांतर रेखाओं का
कभी मिलन नहीं हो सकता पर
अनन्त तक साथ चलना भी प्रेम है।
प्रेम स्वतंत्र है।