मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं बस चंद शब्दों को
लिख देती हो कोरे कागजों पर
जिनमें दिख जाती है नज़्म
टूटे दिलों को
मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं रंग भरती हूं टूटे कुचले ख्वाबों में
कुछ रंगीन शब्दों से
ठूंठ हो गए रिश्तों की
लिखती हूं कहानियां
जिसे पढ़ती हैं चंद जनानियां
अपने हिस्से के ठूंठ हूए रिश्ते कि खोज में
मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं लिखती हूं किस्से
अपनों से बिछड़ अपने की
जो खोये हैं कहीं आसपास
जिन्हें ढ़ूढ़ती है निगाहें
और लौटती हैं खाली हाथ
मैं शब्दों से गर्म कंवल बुनती हूं
उन ठिठूरते रिश्तों के लिए
मैं नज़्म नहीं लिखती
मेरी पेंसिल मिलती है जब पन्नों से
मिल गले दोनों
करते हैं बातें अपने दरख़्त से बिछड़ने की
वो बातें बन जाती है कहानियां
अपने अपने दरख़्त से बिछड़े लोंगो कि
जिसे बाचंती है जाने कितनी पीढीयां
मैं नज़्म नहीं लिखती
मैं लिखती हूं तेरी मेरी कहानियां।