मौत
मौत
गलियों में मौत पसरी है हर मोड़ पर
जाने किस घड़ी किस रूप में मिल जाए किसे
सहमा खड़ा है हर इसांन यहां इसांनो के खौफ से,
खेलती थी कभी जहां किलकारियां
गुंज रही है वहां सन्नाटे की चीख अब,
कांप रही है कोने में खड़ी मूक इसांनियत
शर्मसार है ख़ुदा भी अब तो इनकी सोच पर
सोच रहा है वो भी...
इसांन बनाये थे मैंने
पर दिख नही रहे वो कहीं उसे
बस दिख रहे हैं इंसानियत के दुश्मन,
ख़ुद की ज़िंदगी से ज्यादा
जिन्हें परवाह है मौत बांटने की,
इस बांटते मौत के बीच
क्य
ा कभी सोचा है इन्होंने
जायेगी ज़िंदगी इनकी भी
और मरेंगे इनके अपने भी बेमौत इस खेल में
जबाब देनी होगी इन्हें भी
अपने पीछे आ रही पीढ़ियों को
क्या बोलेंगे वो उनको...
क्यों निभाई दुश्मनी इन्होंने
अपने ही ख़ुदा से
उसकी नसीहतों को ठुकरा कर...
जिंदगी को बांट दिया था इन्होंने धर्म और जात में
अब बांट दी है इन्होंने मौत को भी उपरवाले के नाम पर...
खेल रहे हैं मौत की होली ये जिस बेपरवाही से
भुल गये वो हाथ खुद का भी जलेगा उठते हूए इस आग से।