खुद को अस्वीकारती मैं
खुद को अस्वीकारती मैं
द्वंद में उलझी मैं
मेरी "मैं " को नकारती मैं
भावनाओं के झंझावात में खड़ी
खुद को बिसराती मैं
कभी बेटी, कभी बहन
कभी प्रेमिका, कभी पत्नी, कभी मां
सब कुछ आत्मसात करती
इन सब से इतर...
बस खुद को ही नकारती मैं...
समाज के पहनाये बंधनों को
श्रृंगार के नाम स्वीकारती मैं
पर अपने मन के भाव
मन के गहरे अंधेरे में गुफ़ा में
खुद ही दफनाती मैं
अपने सत्य को खुद ही नकारती मैं।