मैं इंसान हूँ
मैं इंसान हूँ
विकसित समाज में
सम आज कुछ कहाँ रहे
फासलों का दौर है आया
जरूरी है दूरी, समझा रहे
भाव की पर्ची लिए फिरते है लोग
तख्त जितना ऊँचा, सर उतना झुका रहे
कागज का टुकड़ा था कभी पैसा
उस हाथों के मैल से ईमान सजा रहे
अब वो बात कहां इंसानों में
नींद के लिए तक तो गोली खा रहे
मौसमी बारिश हुए दशक गुजरे
फिर भी मौसम समाचार भविष्य बता रहे
हम उलझे है ऐसे खुद से जैसे
आखरी सांस तक सिरे मिला रहे
माँ बाप आश्रम में छोड़े और बीबी को घर मे
बच्चों को उनके कल का सपना दिखा रहे
नाक इतनी ऊँची है, मक्खी भी नही पहुंचेगी
पर गरीब तो मक्खी के साथ खाना तक खा रहे
बच्चे नही, अमीरी के ख्वाब जाते है स्कूल
सब बेचकर पैसा खरीदो, सिखा रहे
हर किसी का काम बंटा है फायदे से
औरत सामान दिखा रहीं, मर्द घर पहुंचा रहे
कोई कीड़ा ही होगा पिछली पीढ़ी को काटा
आज इंसान इंसान को मशीन बना रहे
नादान रहने दो मुझे समझदार नही होना
मेरा गुरुर मैं इंसान हूँ, बस ये बना रहे.