मैं और वो
मैं और वो
मैं हुआ जो मुसाफ़िर वो पनाह हो गई
मैं रहा जो नदामत वो गुमाँ हो गई
इश्क़ था तो वफ़ा की दरकार भी थी
मैं गुनाह सा रहा और वो सज़ा हो गई।
मैं झूठी वक़ालत हुआ वो सच्ची अदालत बनी
मैं ढलता रहा वक़्त सा वो सुबह की हालत बनी
देख कर उसे रहनुमा क़ुदरत भी हैरान थी
छू के निकली फ़िज़ा जो उसे तो भी हवा हो गई।
मैं ठहरा कुआँ तो वो मुस्सलसल नदी
मैं क़लम का सिपाही वो स्याही मेरी
मेरे हर एक ग़ज़ल में वो छलक जाती है
मैं इक शरारत हुआ वो हया हो गई।
मैं फ़लक़ हो चला वो ज़मीं हो गई
मैं जो साँसें हुआ वो ज़िन्दगी हो गई
सिलसिला क़ुर्बतों का यूँ चलता रहा
मैं जो जलने लगा वो धुआँ हो गई।
मैं बना जो कमी वो इज़ाफ़ा हुई
मैं रह गया घाटा सा वो मुनाफ़ा हुई
उसकी आग़ोश में कुछ यूँ महफ़ूज़ हूँ
मैं गुनाहगार हुआ वो गवाह हो गई।
मैं क़ाफ़िर रहा वो पाक-ए-नमाज़ी हुई
मैं ख़त्म हार सा वो जीती बाज़ी हुई
कुछ मुक़म्मल हुआ कुछ अधूरा रहा
मैं जलता दीपक रहा वो शम्मा हो गई।।